देहरादून। नियमित अंतराल में हो रही वर्षा के चलते न केवल गर्मी से राहत मिली, बल्कि उत्तराखंड में जंगलों को अग्नि रूपी आपदा से बचाने में भी इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विभागीय आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं। वर्षा के कारण वन क्षेत्रों में बनी नमी से आग का खतरा बेहद कम हुआ। यह इससे भी साबित होता है कि पिछले वर्ष फायर सीजन (15 फरवरी से 15 जून) में 1728.11 हेक्टेयर जंगल को आग से क्षति पहुंची थी। इस बार यह आंकड़ा लगभग 86 प्रतिशत कम 234.45 हेक्टेयर रहा। यद्यपि, यह भी सही है कि वन विभाग ने इस बार आग से निबटने के लिए तैयारियां भी पुख्ता की गई थीं।
71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाला उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभा रहा है। सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें तो यह मध्य हिमालयी राज्य देश को प्रतिवर्ष तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। इसमें एक लाख करोड़ रुपये की भागीदारी अकेले यहां के वनों की है। यद्यपि, यह भी सही है कि वनों पर खतरे भी कम नहीं हैं। अवैध कटान, भूस्खलन जैसी दिक्कतों के बीच हर साल ही आग रूपी आपदा वन संपदा को नुकसान पहुंचा रही है।
अमूमन फायर सीजन में जंगल अधिक धधकते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि जंगल किसी भी मौसम में घधक जा रहे हैं। पिछले आंकड़ों को देखें तो वर्ष 2016 व 2018 में चार-चार हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल जला था। तब कराए गए अध्ययन में बात सामने आई थी कि वन क्षेत्रों में नमी कम होने के कारण आग का खतरा बढ़ा है। इसे देखते हुए वन क्षेत्रों में जल संरक्षण के काम अवश्य हो रहे हैं, लेकिन इनके अपेक्षित परिणाम की प्रतीक्षा है। ऐसे में आज भी वनों को आग से बचाने के लिए इंद्रदेव की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता है।
इस बार के परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो 15 फरवरी से अब तक नियमित अंतराल में वर्षा हो रही है। वन क्षेत्रों में नमी भी बनी हुई है इससे आग की घटनाओं में कर्म आई है। अपर प्रमुख मुख्य वन संरक्षक वनाग्नि एवं आपदा प्रबंधन निशांत वर्मा भी मानते हैं कि मौसम इस बार फावर सीजन में भरपूर साथ दिया है।
उन्होंने बताया कि विभाग भी पुख्ता तैयारियां की थी। नवाचा के तौर पर मोबाइल एप, राज्य स्तरीय एकीकृत कमांड एंड कंट्रोल सेंटर, हंस फाउंडेशन के माध्यम से जागरूकता अभियान, चीड़ क्षेत्रों से पिरुल एकत्रीकरण में तेर्ज जैसे कदमों से फायदा मिला है। नहीं, चीड़ बहुल क्षेत्रों में 390 वनाग्नि प्रबंधन समितियां गठित की गईं और वहां अग्नि नियंत्रण में ग्रामीणों का सहयोग भी मिला है।
