आज चिपको आन्दोलन की 51 वीं बर्षगांठ है। हर साल 26 मार्च को पूरी दुनियां में चिपको आन्दोलन को लेकर बातचीत होती है। हम भी उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में बात चीत करेंगे।
26 मार्च 1974 को गौरादेवी के नेतृत्व में रेणीगांव की महिलाओं ने पेड़ों पर चिपक कर सरकार को वनों को काटने से रोका था जो देश दुनिया में चिपको आन्दोलन के रूप में विख्यात हुआ। इस आन्दोलन के प्रेणताओं के नाम पर बात हम अगले दिन कर सकते है। फिलवक्त चिपको की जरूरत पर बात आगे बढाते है।
1974 में बद्रीनाथ मन्दिर की मरम्मत के नाम पर किये जा रहे परिवर्तन पर रोक हो तथा हक हकूकों की रक्षा के लिए चाहे रैणी गांव से शुरू चिपको आन्दोलन हो या फिर चांई गांव को बचाने की लड़ाई या फिर भीमकाय जलविधुत परियोजनाओं का विरोध हो। आज जहाँ भी जनपक्षीय संघर्ष है, जैसे पेड़ो व पर्यावरण की रक्षा का मुद्दा हो, भाजपा कांग्रेस को छोड़कर जनवादी संगठन बडे़ सिद्दत के साथ आज भी लड़ रहे हैं। बावजूद इसके कोरपोरेटपरस्त नीतियों के चलते उत्तराखण्ड में बेहद अनियोजित तथा अनियन्त्रित विकास के कारण पर्यावरण को आए दिन नुकसान पहुंचाने की योजनायें बनायी जा रही हैं।
देहरादून में एलिबेटेड रोड़, सात मोड़ में सड़क चौड़ीकरण, पौंधा में सड़क बनाने के नाम पर हजारों पेड़ों को काटने का प्रस्ताव, आल वेदर रोड़, साईबर, ट्वीन सिटी ऐरो सिटी, जोशीमठ, बद्रीनाथ मास्टर प्लान, केदारनाथ में चल रहे भारी भरकम निर्माण चर्चाओं के केन्द्र में है। बद्रीनाथ के मास्टर प्लान को ही धाम की मौलिकता के साथ नैसर्गिकता के खिलाफ माना जा रहा है।
चिपको आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट है कि हिमालय में जल, जगंल, जमीन की रक्षा नितान्त और हर समय जिन्दा मुद्दा है। जो रैणीगांव की महिलाओं ने दशकों पहले कर दिखाया था। उस जमाने में वाईस आफ अमेरिका, बीबीसी तथा रेडियो बीजिंग से चिपको आन्दोलन की काफी चर्चा रही थी।
तत्काल महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर पेड़ों की रक्षा की और चिपको आन्दोलन का सन्देश दुनिया को पहुंचाया। यदि हमारे जननायक इस आन्दोलन से सबक लेते तो निश्चित तौर पर हम बार बार आ रही आपदाओं का सामना नहीं करते।
उत्तराखण्ड में प्रकृति से छेड़छाड़ का यह पहला वाक्या नहीं है, फरवरी 2021 में जोशीमठ के पास ही धौलीगंगा, ऋषिगंगा में बन रहे बिजली प्रोजक्टों को बाढ़ ने तबाह कर यह सन्देश दिया कि संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में प्रकृति का गलत दोहन करोगे तो हाल यही होगा।
वर्ष 2013 में केदारनाथ में आयी अकल्पनीय बाढ़़ किसी से छुपी नहीं है। जबकि 825 किलोमीटर आलवेदर रोड़ के बनने से 40 हजार से भी अधिक पेड़ों का कटान हुआ और पहाड़ों को काट काट कर पुराने भूस्खलनों को जगा दिया है। 2013 की आपदा के बाद 395 गांव खतरे में आ चुके है।
उत्तराखण्ड के लोगों का मानना है कि जोशीमठ ही नहीं बल्कि पूरे हिमालयी राज्यों पर इस जनविरोधी विकास का दुष्प्रभाव पड़ रहा है। आने वाले समय में प्राकृतिक संसाधनो को जिस तरह से विकास की बलवेदी पर चढाया जा रहा है वह किसी खतरे से कम नहीं है। बशर्ते आज भी एक और चिपको की आवश्यकता है।
