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पहाड़ों पर सितंबर माह भी नहीं सुरक्षित, भूस्खलन की बड़ी घटनाएं

पहाड़ी क्षेत्रों में सितंबर का महीना भी सुरक्षित नहीं है। इस दौरान अचानक तेज बारिश और चटक धूप से भूस्खलन का खतरा अधिक रहता है। बीते वर्षों में सितंबर में आपदा की बड़ी-बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें भारी जानमाल का नुकसान हो चुका है।

यूं तो समूचा उत्तराखंड प्राकृतिक आपदा की दृष्टि से जोन चार व जोन पांच में शामिल है। यहां, भूकंप, भूस्खलन, अतिवृष्टि और बादल फटने की घटनाओं का लंबा इतिहास है। इन घटनाओं ने कई गांवों का भूगोल बदलकर रख दिया है। प्राकृतिक आपदा की घटनाएं ज्यादातर जून, जुलाई और अगस्त की बारिश में होती हैं।

जून 2013 की केदारनाथ आपदा का प्रमुख कारण 36 घंटे की लगातार बारिश को माना जाता है।इस वर्ष नई टिहरी, चमोली सहित कुमाऊं क्षेत्र में बरसात के मौसम में जुलाई-अगस्त में काफी नुकसान हो चुका है पर पहाड़ में सितंबर का महीना भी आपदा की दृष्टि से सुरक्षित नहीं है। 13/14 सितंबर 2012 को बादल फटने से ऊखीमठ के चुन्नी, मंगोली और ब्राह्मणगांव का भूगोल ही बदलकर रख दिया था। तब, इन गांवों में मलबे के सैलाब ने 64 लोगों को काल का ग्रास बना दिया था।

आज भी प्रभावित, उस दर्द से उबर नहीं पाए हैं। वर्ष 2011 में कर्णप्रयाग के पंचपुलिया में सितंबर माह में अतिवृष्टि से उपजे मलबे में एक व्यक्ति की मौत हेा गई थी और कई वाहन मलबे की चपेट में आ गए थे। वर्ष 2010 में चमोली जिले के कई गांवों में भू-धंसाव की घटनाएं हो चुकी हैं।

पर्यावरण के जानकार राघवेंद्र सिंह चौधरी बताते हैं कि 15 अगस्त से 15 सितंबर के बीच भाद्रपद का महीना होता है। इस दौरान धूप की तपन ज्येष्ठ माह से भी अधिक होती है, जिससे बरसात के समय गीली हुई मिट्टी सूखने से पत्थर व बोल्डर अपनी जगह छोड़ने लगते हैं, जो भूस्खलन का कारण बनता है।

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Author: uttarakhandtime