इस वर्ष देहरादून सहित राज्य के हर कोने तक गर्मी ने सभी रिकार्ड तोड दिए है। एक तरफ गर्मी और दूसरी तरफ राज्य में भीषण आग ने जंगल के जंगल राख कर दिए है।उत्तराखंड में इन दिनों भीषण गर्मी से लोगों के हाल बेहाल है। खबर लिखने तक जिस देहरादून का तापमान सर्वाधिक 35 से 38 डिग्री जाता था उसका तापमान 43.2 डिग्री पारा पहुंच गया है। दिन प्रति दिन तापमान में बढ़ोत्तरी ने कई सवालों को खड़ा कर दिया है। मैदान से लेकर पहाड़ों तक लोग गर्मी से परेशान है।मौसम विज्ञान केंद्र के अनुसार 2012 में गर्मी का सर्वाधिक रिकॉर्ड बना था। अब 10 साल बाद 2024 में यह टूट गया है। जो 43 डिग्री को पार कर चुका है।
देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक बिक्रम सिंह ने जानकारी दी है कि अंग्रेजी शासनकाल यानी 1 जनवरी 1867 से शहर का तापमान दर्ज किया जा रहा है। साल 1988 में देहरादून शहर में अधिकतम तापमान 42.8 दर्ज किया गया था, लेकिन मई 2024 में वह रिकॉर्ड भी टूट गया है। जब देहरादून का तापमान 43.1 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। तब यहीं कहा जा सकता है कि लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों का गलत दोहन किया है। इसलिए कि विकास के नाम पर देहरादून में दुर्लभ जंगलों को काटा जा रहा है। यही वजह है कि पिछले शुक्रवार को 43.2 डिग्री के साथ देहरादून के पारे ने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए है।
देहरादून में तेजी से बढ़ती गर्मी को लेकर अब एमडीडीए ने बिल्डरों के साथ मिलकर दून को हरा-भरा बनाने पर काम शुरू कर दिया है। अब वे बिल्डर न कि बिल्डिंग बनाएंगे बल्कि वे शहर के प्रमुख मार्गों को गोद लेकर हरा भरा करने की योजना साथ साथ चलाएंगे। एमडीडीए के उपाध्यक्ष बंशीधर भगत ने बताया कि हरेला त्योहार से पहले वह सभी मार्गों में फलदार और छायादार पौधे रोपने की तैयारी में है। उन्होंने बताया कि बिल्डरों को एमडीडीए पौधे उपलब्ध कराएगा, लेकिन इनकी देखरेख की जिम्मेदारी संबंधित बिल्डरों की ही होगी। एमडीडीए के उपाध्यक्ष बंशीधर तिवारी ने कहा कि शहर को हरा-भरा बनाने की जिम्मेदारी हम सभी की है। उन्होंने प्रमुख बिल्डरों को शहर के विभिन्न मार्गों की जिम्मेदारी दी है।
उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर से पिघलने से प्रदेश के कई नदियों का समय में जलस्तर बढ़ गया है। स्थानीय लोग इस बात पर जोर देते हैं कि तपति गर्मी और जंगलों में आग लगने की घटनाओं की वजह से ग्लेशियर पर भारी असर पड़ा है। तापमान बढ़ने का मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है, जिसके चलते ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। उत्तराखंड के ज्यादातर इलाके वन भूमि है और यह कहना गलत नहीं होगा कि विकास कार्यों के नाम पर जंगलों को काटा जा रहा है।
आंकड़े गवाह हैं कि 24 वर्षों में विकास कार्यों के लिए वन भूमि की 43 हजार 816 हेक्टेयर भूमि चली गई है। इसमें सबसे ज्यादा वन भूमि सड़क निर्माण में गई है। 2338 सड़कों के निर्माण में 9294 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि दी गई है। इतना ही नहीं मौजूदा वक्त में प्रत्येक वर्ष वन भूमि हस्तांतरण के लिए स्वीकृतियां दी जा रही है। वन भूमि की जमीन पर निर्माण कार्य करके पेड़ों की बेरहमी से कटाई की गई है। अर्थात विकास कार्यों के नाम पर प्रकृति का जो दोहन हो रहा है, उससे से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अगर यूं ही चलता रहा तो आने वाले वक्त में यहां के बासिंदो को भारी नुकसान चुकाना पड़ सकता है।